मंगलवार, 10 सितंबर 2013

लोकतांत्रिक ब्यवस्था में जनता सर्वोच्च है

लोकसभा ने शुक्रवार देर रात जन प्रतिनिधित्व (संशोधन व मान्यकरण) बिल 2013 को करीब 15 मिनट की बहस के बाद पास कर दिया हमारे देस के नेता सच में एकजुट तो होते है पर बार बार देस को संसद की सर्वोचता बतलाने के लिए , आखिर ये इस बात का खूंटा क्यों गारना चाहते है इससे ये साबित क्या करना चाहते आखिर संसद की सर्वोचता को किससे खतरा है लोकतंत्र के चार स्तंभ है 1- व्यवस्थापिका (संसद),2- कार्यपालिका (रास्ट्रपति), 3-न्यायपालिका, 4-  मीडिया,,,,,,अब जहां तक मिडिया से खतरे की बात है तो उसे बहुत हद तक पूजीवादी तरीको से कंट्रोल किया जाता है,मिडिया कसमसाता तो बहुत है पर सरकार और नेतावो के बिना उसका भी काम नहीं चलने वाला ,और वो शोर मचाने के आलावा कर भी क्या सकता है ,कार्यपालिका तो सरकार का हाथ, आंख, कान और नाक होता है, जैसा सरकार वैसी कार्यपालिका | अब बचता है न्यापालिका संसद को असली खतरा इसी से है यही बार बार नेतावो के रास्ते को रोकता है ........
       कभी ये किसी भ्रष्टाचार के मामले पर खुद ही संज्ञान लेले रहा है ,तो कभी किसी नेता को सजा सुना देता है ,कभी किसी गलत राजनीतिक फैसले पर रोक लगा देता है अब तो इसने हद ही कर दी राजनीतिक पार्टियों को RTI के दायरे में आना परेगा और तो और दो साल की सजा पाए नेता चुनाव भी नहीं लर पायेगा ,कैद में बंद नेता भी चुनाव नहीं लर पायेगा अब ऐसे नेता तो हर पार्टी में है तो एकजुटता तो होनी ही चाहिए ,आखिर वे नेता ठहरे जुल्म कैसे सह सकते है ,ये काम तो जनता का है ,इस लिए संसद की सर्वोचता बहुत जरुरी हो गई है,,,,,
                       संसद की सर्वोचता की सबसे ज्यादा चिंता लालू ,मुलायम जैसे दागी नेतावो को है ,यही सबसे जयादा शोर मचा रहे है ,ये सामंती सोच के जातिवादी नेता अपना भाबिस्य खतरे में देख रहे है ,ये लोकतंत्र के कमियों से हमेसा अपना उल्लू सीधा करते रहे है ,ये खुद को और अपने परिवार को हमारा स्वाभाविक शासक मान बैठे है ,इनके मनमानियो पर कोई अंकुस लगाए इन्हें बरदास्त नहीं ,तकलीफ इस बात की है भाजपा जैसी पार्टी भी इनका साथ दे रही है ,कांग्रेस तो देस का जितना बुरा हो उसमे अपना फाएदा ढूनढती है उसे बस राज़ करना है कैसे भी,,,,,,

               संसद की सर्वोचता का दंभ भरने वाले नेता क्या बतलाएगे लोकतंत्र में जनता का क्या स्थान है क्या जानता यहाँ केवल रूलिंग मटेरियल है ,सांसद को जनता अपने प्रतिनिधि के रूप में चुनती है “मालिक” के रूप में नहीं और ये भी आजमाया हुआ है की ज़ब भी कोई इमानदार जनता के बिच आया है तो जनता ने उसका भरपूर समर्थन किया है,,,,,,,,नेता बयव्स्थाओ की कमियों को अपना हथियार बनाना छोर दे,,,,,, जनता मुर्ख नहीं जनता आक्रोस से उबल रही है............

रविवार, 8 सितंबर 2013

कविता - दे दिया जाता हूं - रघुवीर सहाय

दे दिया जाता हूं - रघुवीर सहाय
मुझे नहीं मालूम था कि मेरी युवावस्था के दिनों में भी
यानी आज भी
दृश्यालेख इतना सुन्दर हो सकता है:
शाम को सूरज डूबेगा
दूर मकानों की क़तार सुनहरी बुन्दियों की झालर बन जायेगी
और आकाश रंगारंग होकर हवाई अड्डे के विस्तार पर उतर आयेगा
एक खुले मैदान में हवा फिर से मुझे गढ़ देगी
जिस तरह मौक़े की मांग हो:
और मैं दे दिया जाऊंगा.
इस विराट नगर को चारों ओर से घेरे हुए
बड़े-बड़े खुलेपन हैं, अपने में पलटे खाते बदलते शाम के रंग
और आसमान की असली शकल.
रात में वह ज़्यादा गहरा नीला है और चाँद
कुछ ज़्यादा चाँद के रंग का
पत्तियाँ गाढ़ी और चौड़ी और बड़े वृक्षों में एक नयी ख़ुशबूवाले गुच्छों में सफ़ेद फूल
अन्दर, लोग;
जो एक बार जन्म लेकर भाई-बहन, माँ-बच्चे बन चुके हैं
प्यार ने जिन्हें गलाकर उनके अपने साँचों में हमेशा के लिए
ढाल दिया है
और जीवन के उस अनिवार्य अनुभव की याद
उनकी जैसी धातु हो वैसी आवाज़ उनमें बजा जाती है
सुनो सुनो बातों का शोर;
शोर के बीच एक गूंज है जिसे सब दूसरों से छिपाते हैं
- कितनी नंगी और कितनी बेलौस ! -
मगर आवाज़ जीवन का धर्म है इसलिए मढ़ी हुई करतालें बजाते हैं
लेकिन मैं,
जो कि सिर्फ़ देखता हूं, तरस नहीं खाता, न चुमकारता,
क्या हुआ क्या हुआ करता हूं.
सुनता हूँ, और दे दिया जाता हूँ.
देखो, देखो, अँधेरा है
और अँधेरे में एक ख़ुशबू है किसी फूल की
रोशनी में जो सूख जाती है
एक मैदान है जहां हम तुम और ये लोग सब लाचार हैं
मैदान के मैदान होने के आगे.
और खुला आसमान है जिसके नीचे हवा मुझे गढ़ देती है
इस तरह कि एक आलोक की धारा है जो बाँहों में लपेटकर छोड़
देती है और गन्धाते, मुँह चुराते, टुच्ची-सी आकांक्षाएँ बार-बार
ज़बान पर लाते लोगों में
कहाँ से मेरे लिए दरवाज़े खुल जाते हों जहाँ ईश्वर
और सादा भोजन है और
मेरे पिता की स्पष्ट युवावस्था.
सिर्फ़ उनसे मैं ज़्यादा दूर-दूर हूँ
कई देशों के अधभूखे बच्चे
और बाँझ औरतें, मेरे लिए
संगीत की ऊँचाइयों, नीचाइयों में गमक जाते हैं
और ज़िन्दगी के अन्तिम दिनों में काम करते हुए बाप
भीड़ में से रास्ता निकालकर ले जाते हैं
तब मेरी देखती हुई आँखें प्रार्थना करती हैं
और जब वापस आती हैं अपने शरीर में, तब वह दिया जा
चुका होता है.
किसी शाप के वश बराबर बजते स्थानिक पसन्द के परेशान संगीत में से
एकाएक छन जाता है मेरा अकेलापन
आवाज़ों को मूर्खों के साथ छोड़ता हुआ
और एक गूँज रह जाती है शोर के बीच जिसे सब दूसरों से छिपाते हैं
नंगी और बेलौस,

और उसे मैं दे दिया जाता हूँ. (1959), (संग्रह: सीढ़ियों पर धूप में)

जयशंकर प्रसाद की कविता ‘आँसू’

 जयशंकर प्रसाद की कविताआँसू

जो घनीभूत पीड़ा थी
मस्तक में स्मृति-सी छायी
दुर्दिन में आँसू बनकर
जो आज बरसने आयी।
ये मेरे क्रंदन में बजती
क्या वीणा? - जो सुनते हो
धागों से इन आँसू के
निज करुणा-पट बुनते हो।
रो-रोकर, सिसक-सिसककर
कहता मैं करुण-कहानी
तुम सुमन नोचते सुनते

करते जानी अनजानी।

कबीरदास की कविताएँ

कबीरदास की एक कालजई रचना .........
झीनी झीनी बीनी चदरिया ॥
काहे कै ताना काहे कै भरनी,
कौन तार से बीनी चदरिया ॥ १॥
इडा पिङ्गला ताना भरनी,
सुखमन तार से बीनी चदरिया ॥ २॥
आठ कँवल दल चरखा डोलै,
पाँच तत्त्व गुन तीनी चदरिया ॥ ३॥
साँ को सियत मास दस लागे,
ठोंक ठोंक कै बीनी चदरिया ॥ ४॥
सो चादर सुर नर मुनि ओढी,
ओढि कै मैली कीनी चदरिया ॥ ५॥
दास कबीर जतन करि ओढी,
ज्यों कीं त्यों धर दीनी चदरिया ॥ ६॥



कबीर की एक और कविता है  
रहना नहीं देस बिराना है
यह संसार कागद की पुड़िया, बूँद पड़े गल जाना है।
यह संसार काँट की बारी, उलझ पुलझ मरि जाना है।।
यह संसार झाड़ और झाखर, आग लगे बरि जाना है।

कहें कबीर सुनो भाई साधो, सद्गुरु नाम ठिकाना है।।