सोमवार, 22 फ़रवरी 2016

बंदेमातरम्

अब जब की कुछ लोग “बंदेमातरम्” और “तिरंगे” तक के बिरोध में खुल कर आ गयें है तो मैं भी खुलेआम कहता हूँ, की मुझे भी “जन गण मन गाने” में असहजता महसूस होती है, बंदेमातरम् को अकेला राष्ट्रगान घोषित करो, देश का बंटवारा ही जबकि धर्म के आधार पर हुआ था तो आखिर तुस्टीकरण की जरुरत क्या थी ? तुस्टीकरण का बिज उस वक़्त भविष्य के राजनीति के मद्देनज़र बोया गया था जो आज बिशाल बृक्ष बन कर लहलहा रहा है,
जब राष्ट्रगान के चयन की बात आयी तो वन्दे मातरम् के स्थान पर सन् 1911 में इंग्लैण्ड से भारत आये जार्ज पंचम की स्तुति-प्रशस्ति में रवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा लिखे व गाये गये गीत जन गण मन को वरीयता दी गयी । इसकी वजह यही थी कि कुछ मुसलमानों को “वन्दे मातरम्” गाने पर आपत्ति थी, क्योंकि इस गीत में देवी दुर्गा को राष्ट्र के रूप में देखा गया है । इसके अलावा उनका यह भी मानना था कि यह गीत जिस आनन्द मठ उपन्यास से लिया गया है वह मुसलमानों के खिलाफ लिखा गया है। इन आपत्तियों के मद्देनजर सन् 1937 में कांग्रेस ने इस विवाद पर गहरा चिन्तन किया । जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में गठित समिति जिसमें मौलाना अबुल कलाम आजाद भी शामिल थे, ने पाया कि इस गीत के शुरूआती दो पद तो मातृभूमि की प्रशंसा में कहे गये हैं, लेकिन बाद के पदों में हिन्दू देवी-देवताओं का जिक्र होने लगता है; इसलिये यह निर्णय लिया गया कि इस गीत के शुरुआती दो पदों को ही राष्ट्र-गीत के रूप में प्रयुक्त किया जायेगा। इस तरह रवीन्द्र नाथ ठाकुर के जन-गण-मन अधिनायक जय हे को यथावत राष्ट्रगान ही रहने दिया गया, और मोहम्मद इकबाल के कौमी तराने सारे जहाँ से अच्छा के साथ बंकिमचन्द्र चटर्जी द्वारा रचित प्रारम्भिक दो पदों का गीत वन्दे मातरम् राष्ट्रगीत स्वीकृत हुआ। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद ने संविधान सभा में 24जनवरी 1950 में ‘वन्देमातरम्’ को राष्ट्रगीत के रूप में अपनाने सम्बन्धी वक्तव्य पढ़ा जिसे स्वीकार कर लिया गया, लेकिन मुस्लिम तुस्टीकरण के चलते बंदेमातरम को कांग्रेस ने आज भी वह सम्मान नहीं दिया जिसकी वह हक़दार है, “बंदेमातरम्”

जे.एन.यु, कांग्रेस और बामपंथ

ऐसा कहा जा रहा है की आरएसएस JNU पर अपनी बिचारधारा थोपना चाहता है लेकिन सबसे पहला सवाल यह उठता है की पूरी दुनिया से ख़त्म हो रहा बामपंथ JNU में ही क्यों फल फुल रहा है, और पांच दशकों से यहाँ वैचारिक प्रतिनिधित्व के नाम पर बामपंथ की विचारधारा का ही कब्जा क्यों रहा है, इंदरागाँधी ने साठ के दशक में सरकार चलाने के लिए वामपंथियों की मदद ली थी, जिसके बदले में अकदामिक संस्थाओं पर बामपंथियो का कब्जा करवा दिया, इससे उन्हें दोहरा फायदा हुआ पहला की जनसंघ के बढ़ते रास्ट्रवादी बिचारधरा के खिलाफ साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का केंद्र बामपंथी बने और दूसरा कांग्रेस सफाई से हिंदुत्व को साम्प्रदायिकता के तौर पर प्रचारित और स्थापित करने के आरोप से दूर भी रहे, कांग्रेसी सरकारों ने बामपंथ और उनके हिंसक आन्दोलनों का अपने शासन के नाकामी को छुपाने के लिय भी खूब इस्तेमाल किया है,
अब बात करते है JNU के बर्तमान दशा की तो जहाँ पुरे देश के बिद्यालय शिक्षको के कमी से जूझते है वही समानता की बाते सिखलाने वाले इस बिश्वबिध्यालय में हर 10वे बिद्यार्थी पर एक शिक्षक है, यहाँ स्थापित पीठ में आपको कांग्रेस और बामपंथ से सम्बंधित पीठ ही दिखेंगे, भारत सरकार से भरपूर अनुदान पा रहे इस बिश्वबिध्यालय में साहित्य नामवर सिंह, केदारनाथसिंह,और मोहम्मदहसन जैसे लोग पढ़ाते है तो इतिहास रोमिला थापर,बिपन चन्द्रा,तापस मजूमदार जैसे लोग,
यह समझना कठिन नहीं की उग्र बामपंथी बिचारधारा को मनाने वालो की पौध कौन तैयार कर रहा है और किसके लिये, लम्बे समय तक देश पर राज करने वाले खुद तो अभिब्यक्ति की आज़ादी बाते करते है लेकिन खुद पर सवाल उठे उन्हें बिलकुल पसंद नहीं,

कांग्रेस का हाथ नक्सलियों के साथ

राहुल गाँधी और उनके बामपंथी मित्र एक स्वर में कह रहे है की हमें देशभक्ति का सर्टिफिकेट बीजेपी से नहीं चाहिये, जब देश भक्ति करना ही नहीं तो फिर सर्टिफिकेट कैसा, आपको पुरुलिया हथियार कांड याद होगा, जब लोग शौचालय करके वापस अपने घरों को लौटे तो सबके हाथ में AK47 रायफल थे, और उसी घटना के बाद झारखण्ड, बंगाल नक्सलियों के गिरफ्त में पूरी तरह से जा फँसा, मुख्य आरोपी ने सार्वजनिक रूप से बताया की केंद्र की कांग्रेसी सरकार के कहने पर उसने हथियार गिराया, केंद्र ने बंगाल के कम्युनिस्ट शासन से लड़ने की लिये अपने लोगो के बिच हथियार गिरवाया था, मतलब की केंद्र सरकार फौज,पारामिलिट्री होने के बावजूद गैरकानूनी तरीके से बामपंथी सरकार से लड़ना चाहती थी, दरअसल यह कांग्रेस और बामपंथियो की नुरा कुश्ती थी जिसमे आजतक न जाने कितने बेगुनाहों के प्राण गये, पुलिस मरे या नक्सली मरने वाला तो कोई गरीब ही होता है,
मजे की बात तो यह है की बामपंथ सर्वहारा वर्ग की बात करता है, क्रांति को अपना कर्म कहता है हिंसा को अपना रास्ता, जबकि कांग्रेस गरीबी हटावो के नाम पर राजनीती करती है और अहिंसा को परमोधर्म कहती है, दोनों धाराये पक्ष बिपक्ष में रहे लेकिन परिणाम शून्य रहा, क्युकी यह कोई क्रांति थी ही नहीं बस यह एक राजनैतिक समझौता था, यह भी सब जानते है की पुरुलिया के गुनाहगार किम डेवी को किसने छोड़ दिया था, वह उदारीकरण का शुरुवाती दौर बिदेशी बाज़ार बस खुला ही था, संसाधनों का अत्यधिक और तेज़ी से दोहन किया जाना था, जनता को बरगलाना था उनके आवाज को दबाना था बस डील हो गई नक्सलवाद पनप गया, भला जान माल के सामने आम आदमी तरक्की या अन्य बातो की कब सोंचता है कोई आवाज उठाये तो नक्सलियों का भय,
अब फिर से वापस आते है मूल मुद्दे पर, आज JNU के देशद्रोहियो को जो पुरे देश से लानत दी जा रही है शायद सुशिल शिंदे ने कभी इसी हिन्दू आतंकवाद से देश को आगाह किया था, अब तो सच में ऐसा लग रहा है की बाटला हॉउस मुठभेड़ के बाद सोनियाँ गाँधी रो ही पड़ी होंगी, आतंकी घटना के बाद फिल्मवाले को लोकेसन दिखलाने वाले, घटना स्थल का दौरा करते हुए असंबेदंशिलता का परिचय बार बार कपडे बदलने वाले गृह मंत्री की पार्टी का उपाध्यक्ष कहता है की हमें देश भक्ति का सर्टिफिकेट नहीं चाहिये, मालदा की घटना हो या फिर अमर जवान ज्योति को तोड़ने की, कांग्रेस का हाथ बामपंथियो के साथ रहा अराजक तत्वों के साथ रहा, आम जन को धोखा देने के लिय दूर खड़ी कांग्रेस और बामपंथ की जोड़ी घटते ताकत के मद्देनजर आज बंगाल के चुनाव में दोनों खुले रूप से एक साथ है,