भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1) में मौलिक
अधिकारों के तहत नागरिकों को बोलने की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आज़ादी का
प्रावधान किया गया है. बोलने की स्वतंत्रता लोकतंात्रिक सरकार के लिए कवच है.
लोकतांत्रिक प्रक्रिया को सही तरीक़े से लागू करने के लिए इस तरह की स्वतंत्रता
बेहद ज़रूरी है. यह स़िर्फ नागरिकों के मूलभूत अधिकारों को ही नहीं, बल्कि
देश की एकता और एकरूपता को भी बढ़ावा देता है. हालांकि संविधान के अनुच्छेद 19(1)
में जो स्वतंत्रता दी गई है, वह पूर्ण या काफी नहीं है. ये सभी
अधिकार संसद या राज्यविधानसभा के बनाए क़ानूनों के तहत नियंत्रित, नियमित
या कम करने के लिए जवाबदेह हैं. अनुच्छेद 19 के नियम (2) से (6) में उन आधारों और
लक्ष्यों की व्याख्या है जिसके आधार पर इन अधिकारों को नियंत्रित किया जा सकता है.
लोकतांत्रिक प्रक्रिया को सुचारू रूप से चलाने
के लिए बोलने की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आज़ादी बहुत ज़रूरी है और उसे आज़ादी की
पहली शर्त माना जाता है. बोलने की स्वतंत्रता सभी अधिकारों की जननी है. सामाजिक,
राजनैतिक
और आर्थिक मुद्दों पर लोगों की राय बनाने के लिए बोलने की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति
की आज़ादी महत्वपूर्ण है. मेनका गांधी बनाम भारतीय संघ के मामले में न्यायमूर्ति
भगवती ने बोलने की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आज़ादी के महत्व पर ज़ोर देते हुए
व्यवस्था दी थी कि-लोकतंत्र मुख्य रूप से स्वतंत्र बातचीत और बहस पर आधारित है.
लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले देश में सरकार की कार्रवाई के उपचार के लिए यही एक उचित
व्यवस्था है. अगर लोकतंत्र का मतलब लोगों का, लोगों के द्वारा
शासन है, तो यह स्पष्ट है कि हर नागरिक को लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भाग लेने
का अधिकार होना ज़रूरी है और अपनी इच्छा से चुनने के बौद्धिक अधिकार के लिए
सार्वजनिक मुद्दों पर स्वतंत्र विचार, चर्चा और बहस बेहद ज़रूरी है.
अनुच्छेद 19 (1) के तहत मिली अभिव्यक्ति की
आज़ादी मेंकोई भी नागरिक किसी भी माध्यम के द्वारा, किसी भी मुद्दे
पर अपनी राय और विचार दे सकता है. इन माध्यमों में व्यक्तिगत, लेखन,
छपाई,
चित्र,
सिनेमा
इत्यादि शामिल हैं. जिसमें संचार की आज़ादी और अपनी राय को सार्वजनिक तौर पर रखने
और उसे प्रचारित करने का अधिकार भी शामिल है.
भारत में प्रेस की स्वतंत्रता को अनुच्छेद 19
के तहत मिली बोलने की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आज़ादी से ही लिया गया है. प्रेस
की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए अलग से कोई प्रावधान नहीं है. सकाल अखबार
बनाम भारतीय संघ के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि प्रेस की स्वतंत्रता की
उत्पत्ति अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से ही हुई है. सुप्रीम कोर्ट ने कई मामलों में
लोकतांत्रिक समाज में प्रेस की स्वतंत्रता को बनाए रखने पर ज़ोर दिया है. प्रेस
तथ्यों और विचारों को प्रकाशित कर लोगों की रुचि बढ़ाकर एक ऐसी तार्किक विचारधारा
उत्पन्न करता है जिसके बिना कोई भी निर्वाचक मंडल सही फैसला नहीं दे सकता.
प्रेस की स्वतंत्रता अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
का अभिन्न अंग है और लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए बहुत ही ज़रूरी है. भारतीय
संविधान में यह स्वतंत्रता मौलिक अधिकार के रूप में दी गई है. प्रेस व्यक्तिगत
अधिकारों को सम्मान देने और वैधानिक सिद्धांतों और क़ानूनों के अंतर्गत काम करने के
लिए बाध्य है. ये सिद्धांत और क़ानून न्यूनतम मानकों को ध्यान में रखकर बनाए गए हैं
और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिक महत्वपूर्ण सिद्धांतों में दखल नहीं देते
हैं. मीडिया लोकतांत्रिक व्यवस्था का चौथा स्तंभ है. बाक़ी तीनों स्तंभों में,
जहां
विधायिका समाज के लिए क़ानून बनाती है, वहीं कार्यपालिका उसे लागू करने के लिए
क़दम उठाती है, तीसरा महत्वपूर्ण स्तंभ न्यायपालिका है जो यह
सुनिश्चित करती है कि सभी कार्रवाइयां और फैसले वैधानिक हों और उनका सही तरीक़े से
पालन किया जाए. चौथे स्तंभ-यानी प्रेस को इन क़ानूनों और संवैधानिक प्रावधानों के
अंदर रहकर सार्वजनिक और राष्ट्रीय हित में काम करना होता है. इससे यही संकेत मिलता
है कि कोई भी क़ानून से ऊपर नहीं है. जब भारत के संविधान में नागरिकों के लिए
संविधान में बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सुनिश्चित किया गया, तब
यह भी सुनिश्चित किया गया कि यह स्वतंत्रता पूर्ण नहीं थी और कोई भी
अभिव्यक्ति-चाहे वह शाब्दिक हो या दृश्य माध्यम से-वह विधायिका द्वारा बनाए गए और
कार्यपालिका के द्वारा लागू किए गए संवैधानिक नियमों का उल्लंघन न करती हो. अगर
प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर आकर काम करता है तो
न्यायपालिका के पास उस पर मौलिक अधिकार उल्लंघन के तहत कार्रवाई का हक़ है.
प्रिंट, रेडियो और टीवी
एक स्वस्थ लोकतंत्र विकसित करने के लिए लोगों को जागरूक बनाने में महत्वपूर्ण
भूमिका अदा करते हैं. अनुच्छेद 19(2) के तहत रखे गए प्रावधानों में एक नागरिक को
अपने विचार रखने, प्रकाशित करने और प्रचारित करने का अधिकार है,
और
इस अधिकार पर कोई भी रोक अनुच्छेद 19(1) के तहत ग़लत होगी. सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम
मामले में दूरदर्शन को फटकार लगाई, जिसमें दूरदर्शन ने भोपाल कांड पर बने
एक वृत्तचित्र (डाक्यूमेंटरी) को दिखाने से इंकार कर दिया था. दूरदर्शन के मुताबिक
उस मामले की अब कोई प्रासंगिकता नहीं रह गई थी.
हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इस दलील को ख़ारिज़ कर
दिया. पर इस मामले में न्यायालय ने कहा कि राज्य के प्रयासों को अयोग्यता और
अधिकारियों के रवैए का चित्रण किसी राजनैतिक पार्टी पर हमला नहीं माना जा सकता,
जब
की गई आलोचना सही और स्वस्थ हो.
अभी हाल के दिनों में स्टिंग ऑपरेशन को लेकर
बहुत सवाल उठे हैं. स्टिंग ऑपरेशन धोखे से किसी अपराधी को पकड़ने का तरीक़ा है. इसके
लिए झूठे विश्वास और बड़ी चतुराई पर आधारित योजना बनाई जाती है, जिस
पर बहुत ही सावधानी और सर्तकता के साथ अमल किया जाता है. स्टिंग शब्द की उत्पत्ति
अमेरिका से हुई है. इसे वहां की पुलिस द्वारा अपराधियों को पकड़ने के लिए गुप्त
योजना के अर्थ में प्रयोग किया जाता था. दूसरे शब्दों में इसे खोजी और गुप्त
पत्रकारिता भी कह सकते हैं. स्टिंग ऑपरेशन असल में सूचना एकत्र करने का एक ऐसा
तरीक़ा है जिसमें उस सूचना को प्राप्त किया जाता है जिसे हासिल करना दूसरी तरह से
बहुत ही कठिन हो.
अगर देखा जाए तो बहुत घटनाओं में स्टिंग ऑपरेशन
सरकार के काम करने के तरीक़ों का जायज़ा लेने के लिए किया जाता है या फिर किसी भी
ऐसे व्यक्ति के ख़िला़फजिसका आचरण व्यवस्था केविरुद्ध हो. भारत में इस तरह के
ऑपरेशन को नियंत्रित करने के लिए कोई विशेष क़ानून नहीं बनाया गया है और न ही इसके
मार्गदर्शन के लिए कोई न्यायिक घोषणा ही है. लेेकिन कोई भी व्यक्ति विभिन्न
क़ानूनों के तहत अपने अधिकारों और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए न्यायालय जा सकता है.
1996 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए एक ़फैसले के अनुसार वायरटैप का प्रयोग किसी
कीनिजी ज़िंदगी में दखल देना है. कोर्ट ने सरकार द्वारा वायरटैपिंग के लिए
दिशा-निर्देश जारी किए. इसमें यह बताया गया कि किन परिस्थितियों में और कौन फोन
टैप कर सकता है. फोन टैप करने का आदेश स़िर्फ गृह सचिव और राज्य में उसके समकक्ष
कोई अधिकारी ही दे सकता है. इसके अलावा सरकार को यह भी दिखाना होगा कि जो सूचना
प्राप्त की जा रही है, उसे किसी दूसरे ज़रिए से प्राप्त नहीं किया जा
सकता है.
हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में
कहा कि पत्रकार स्टिंग ऑपरेशन के ज़रिए समाज में भ्रष्टाचार को उजागर करता है.
केंद्रीय मंत्री और बीजेपी नेता दिलीप सिंह जूदेव के ख़िला़फ हुए एक स्टिंग ऑपरेशन
से संबंधितमामले में सुनवाई के दौरान जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने कहा कि वह स्टिंग
ऑपरेशन से पूर्णत: सहमत हैं. अधिक से अधिक स्टिंग ऑपरेशन होने चाहिए, जिससे
भ्रष्ट लोगों को सामने लाया जा सके. साथ ही उन्होंने कहा कि जो स्टिंग ऑपरेशन कर
रहा है उसके साथ अपराधीजैसा व्यवहार नहीं करना चाहिए. उसका उद्देश्य स़िर्फ समाज में फैले भ्रष्टाचार को सामने लाना
होता है. उन्होंने पूछा, वह अपराधी जैसा कैसे हो सकता है. काटजू
के विचार भारत के मुख्य न्यायाधीश के जी बालकृष्णन की अध्यक्षता वाली एक दूसरी
खंडपीठ के उलट हैं, जिसने एक चैनल के पत्रकार-जिसने गुजरात के एक
अधीनस्थ कोर्ट में व्याप्त भ्रष्टाचार को उजागर किया-से बिना शर्त क्षमा मांगने के
लिए कहा. 2004 में उस रिपोर्टर ने चार बड़ी हस्तियों-जिनमें पूर्व राष्ट्रपति एपीजे
अब्दुल कलाम और भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश शामिल थे-के ख़िला़फ अहमदाबाद के
कोर्ट से ज़मानती वारंट जारी करा लिए थे.
हालांकि जूदेव केस की सुनवाई कर रही पीठ के प्रमुख अलतमस कबीर ने कहा कि स्टिंग
ऑपरेशन के दूसरे पहलू भी हैं, जिसका सबूत दिल्ली में एक शिक्षिका उमा
खुराना के मामले में दिखा.
साभार :- चौथी दुनिया