रविवार, 8 सितंबर 2013

कविता - दे दिया जाता हूं - रघुवीर सहाय

दे दिया जाता हूं - रघुवीर सहाय
मुझे नहीं मालूम था कि मेरी युवावस्था के दिनों में भी
यानी आज भी
दृश्यालेख इतना सुन्दर हो सकता है:
शाम को सूरज डूबेगा
दूर मकानों की क़तार सुनहरी बुन्दियों की झालर बन जायेगी
और आकाश रंगारंग होकर हवाई अड्डे के विस्तार पर उतर आयेगा
एक खुले मैदान में हवा फिर से मुझे गढ़ देगी
जिस तरह मौक़े की मांग हो:
और मैं दे दिया जाऊंगा.
इस विराट नगर को चारों ओर से घेरे हुए
बड़े-बड़े खुलेपन हैं, अपने में पलटे खाते बदलते शाम के रंग
और आसमान की असली शकल.
रात में वह ज़्यादा गहरा नीला है और चाँद
कुछ ज़्यादा चाँद के रंग का
पत्तियाँ गाढ़ी और चौड़ी और बड़े वृक्षों में एक नयी ख़ुशबूवाले गुच्छों में सफ़ेद फूल
अन्दर, लोग;
जो एक बार जन्म लेकर भाई-बहन, माँ-बच्चे बन चुके हैं
प्यार ने जिन्हें गलाकर उनके अपने साँचों में हमेशा के लिए
ढाल दिया है
और जीवन के उस अनिवार्य अनुभव की याद
उनकी जैसी धातु हो वैसी आवाज़ उनमें बजा जाती है
सुनो सुनो बातों का शोर;
शोर के बीच एक गूंज है जिसे सब दूसरों से छिपाते हैं
- कितनी नंगी और कितनी बेलौस ! -
मगर आवाज़ जीवन का धर्म है इसलिए मढ़ी हुई करतालें बजाते हैं
लेकिन मैं,
जो कि सिर्फ़ देखता हूं, तरस नहीं खाता, न चुमकारता,
क्या हुआ क्या हुआ करता हूं.
सुनता हूँ, और दे दिया जाता हूँ.
देखो, देखो, अँधेरा है
और अँधेरे में एक ख़ुशबू है किसी फूल की
रोशनी में जो सूख जाती है
एक मैदान है जहां हम तुम और ये लोग सब लाचार हैं
मैदान के मैदान होने के आगे.
और खुला आसमान है जिसके नीचे हवा मुझे गढ़ देती है
इस तरह कि एक आलोक की धारा है जो बाँहों में लपेटकर छोड़
देती है और गन्धाते, मुँह चुराते, टुच्ची-सी आकांक्षाएँ बार-बार
ज़बान पर लाते लोगों में
कहाँ से मेरे लिए दरवाज़े खुल जाते हों जहाँ ईश्वर
और सादा भोजन है और
मेरे पिता की स्पष्ट युवावस्था.
सिर्फ़ उनसे मैं ज़्यादा दूर-दूर हूँ
कई देशों के अधभूखे बच्चे
और बाँझ औरतें, मेरे लिए
संगीत की ऊँचाइयों, नीचाइयों में गमक जाते हैं
और ज़िन्दगी के अन्तिम दिनों में काम करते हुए बाप
भीड़ में से रास्ता निकालकर ले जाते हैं
तब मेरी देखती हुई आँखें प्रार्थना करती हैं
और जब वापस आती हैं अपने शरीर में, तब वह दिया जा
चुका होता है.
किसी शाप के वश बराबर बजते स्थानिक पसन्द के परेशान संगीत में से
एकाएक छन जाता है मेरा अकेलापन
आवाज़ों को मूर्खों के साथ छोड़ता हुआ
और एक गूँज रह जाती है शोर के बीच जिसे सब दूसरों से छिपाते हैं
नंगी और बेलौस,

और उसे मैं दे दिया जाता हूँ. (1959), (संग्रह: सीढ़ियों पर धूप में)

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