कबी नागार्जुन की कुछ पंक्तिया उनकी कहानी “पारो’ से
आँखों के सामने लगता था ,मानो एक नहीं पचासों पारो नाच रही है ,,,,
नाचती नाचती वे सभी धीरे धीरे ऊपर उठ उठ कर आकाश में उड़ी जा रही है
......
उन सबो की ज़गह फिर दूसरी पारो न जाने कहाँ से आकर खरी हो जाती है
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इस प्रकार से मैं जाग्रत श्वप्न देखता रहा ...... (नागार्जुन)
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