शनिवार, 8 मार्च 2014

अज्ञेय की एक कविता

मैं ने पूछा क्या कर रही हो
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मैं ने पूछा,
यह क्या बना रही हो?
उसने आंखों से
धुआं पोंछते हुए कहाः
मुझे क्या बनाना है! सब-कुछ
अपने आप बनता है
मैंने तो यही जाना है।
कह लो मुझे भगवान ने यही दिया है।

मेरी सहानुभूति में हठ था
मैं ने कहाः कुछ तो बना रही हो
या जाने दो, न सही --
बना नहीं रही --
क्या कर रही हो?
वह बोलीः देख तो रहे हो
छीलती हूं
नमक छिड़कती हूं
मसलती हूं
निचोड़ती हूं
कोड़ती हूं
कसती हूं
फोड़ती हूं
फेंटती हूं
महीन बिनारती हूं
मसालों से संवारती हूं
देगची में पलटती हूं
बना कुछ नहीं रही
बनता जो है -- यही सही है --
अपने आप बनता है
पर जो कर रही हूं --
एक भारी पेंदे
मगर छोटे मुंह की
देगची में सब कुछ झोंक रही हूं
दबा कर अंटा रही हूं
सीझने दे रही हूं।
मैं कुछ करती भी नहीं --
मैं काम सलटती हूं।

मैं जो परोसूंगी
जिन के आगे परोसूंगी
उन्हें क्या पता है
कि मैं ने अपने साथ क्या किया है?

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